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आलोचना

बांग्ला की समकालीन काव्य संवेदना

कृपाशंकर चौबे


समकालीन बांग्ला कविता ने जिनकी रचनाओं से आकार लिया, वे कवि हैं अरुण मित्र, सुभाष मुखोपाध्याय, नीरेंद्रनाथ चक्रवर्ती, सुनील गंगोपाध्याय, शंख घोष, नवनीता देव सेन, नवारूण भट्टाचार्य, जय गोस्वामी, कृष्णा बसु, सुबोध सरकार, इप्सिता हाल्दार, सनत कुमार मुखोपाध्याय, रणजित दास, श्यामल कांति दास, तीर्थंकर दास पुरकायस्थ, विभास राय चौधरी, यशोधरा राय चौधरी, विजया मुखोपाध्याय, श्रीजात, चैताली चट्टोपाध्याय, पिनाकी ठाकुर, शिवाशीष मुखोपाध्याय, मृणालकांति दास, पायल सेनगुप्त, सोमा समाद्दार, सेवंती घोष, कौशिक सेन, अवीक मजुमदार, प्रसून भौमिक, शर्मिष्ठा बाग आदि। बांग्ला में अभी शताधिक कवि सक्रिय हैं। वे वरिष्ठ, मझली, कनिष्ठ और युवतर पीढ़ी के हैं। उनकी अपनी-अपनी काव्य चिंताएं हैं। बांग्ला के समकालीन कवियों की कविताओं में हम पाते हैं कि आज की बांग्ला कविता भयावह यथार्थ के सामने खड़ी है। उदारीकरण, हिंसा, उन्माद, विद्वेष, युद्ध की छाया, धर्म, नस्ल व रंग के आधार पर विभाजन, सत्ता का फासीवादी चरित्र, आधुनिक जीवन की जटिलता सांप्रतिक बांग्ला कविता के दृश्य में हैं। आज की बांग्ला कविता शोषितों, उत्पीड़ितों और अन्तिम मनुष्य के पक्ष में और फासीवाद-साम्राज्यवाद-बाजारवाद यानी मनुष्य विरोधी ताकतों के विरूद्ध तनकर खड़ी है। अपने मजबूत पाँवों पर। अन्य भाषाओं की कविताओं की तरह समकालीन बांग्ला कविता भी जीवन और मनुष्य को बेहतर व सुन्दर बनाने का स्वप्न देखती है। आज की बांग्ला कविता में विषय-वस्तु ही नहीं, शिल्प भी वैविध्यपूर्ण है। सांप्रतिक काल के कवियों में सबसे पहले अरुण मित्र (1909-2000) का ध्यान आता है। अरुण दा आधुनिक बांग्ला कविता के एक स्तंभ थे। बांग्ला में उनके पंद्रह कविता संकलन प्रकाशित-चर्चित हुए। ये संग्रह हैं- 'प्रांतरेखा', 'उत्सेर दिके', 'घनिष्ठ ताप', 'मंचेर बाइरे', 'शुधुरात्रेर शब्द नई', 'प्रथम पति शेष पात्र', 'खूंजते खूंजते एतो दूर', 'जदिओ आगुन झोरधासा दांगा', 'एइ अमृत एइ गारो', 'तुनीकाथार घेराव थेके बोलछि', 'खारा उड़बोरे चिह्न दिए चोली', 'अंधकार जतखोन जेगे थाके', 'ओरा उड़ीते नेई', 'भांगनेर माटी', 'उच्छानो समयेर सुख-दुःख घिरे'। इसके अलावा अरुण मित्रेर श्रेष्ठ कविता, काव्य समग्र, निर्वाचित कविता भी छपकर समादृत हुईं। अरुण मित्र ने हमेशा लिखने में नयापन लाने की कोशिश की। उनकी हर कविता में दूसरी तरह के शब्द प्रयोग, नई अभिव्यक्ति, नई कल्पना हम पाते हैं। समय और उसके दबाव पर भी वे सदा नजर रखते थे। उनकी एक कविता है- काउके आमि दुख दिते पारी ना/आमार कष्ट होय (किसी को मैं दुख नहीं दे सकता, मुझे कष्ट होता है)। इसी कविता में एक जगह उन्होंने जो कहा है, उसका हिंदी अनुवाद होगा- मैं स्वर्ग चाहता हूँ पर किसी को नरक हो, यह नहीं चाहता। इस अकेली कविता से हम अरुण मित्र के जीवन दर्शन को समझ सकते हैं। इस दर्शन के कारण ही अरुण मित्र की कविता हृदय को स्पर्श मात्र नहीं करती, भीतर उथल-पुथल भी मचा देती है। मन को मुक्त कर देती है। कुछ ऊपर उठा देती है। कविता हमेशा हर तरह के मनुष्य की पीड़ा, उसके दुख का खात्मा चाहती है। जो मनुष्य के अस्तित्व व यथार्थ की उपेक्षा करता है, वह बड़ा कवि नहीं हो सकता। अरुण मित्र इसलिए बड़े कवि हैं क्योंकि उनकी कविता मनुष्य जीवन, उसके दुख-सुख और उसकी मन:स्थियों से सदा जुड़ी रही। अरुण मित्र ने दिखाया कि सिर्फ जादुई भाषा और शिल्प से कविता महान नहीं होती। कविता हृदय की भाषा है। मस्तिष्क की एक भूमिका है, पर बाद में। अपनी नौकरानी के बीमार पड़ने पर अरुण मित्र उस पर कविता लिखी थी- 'तुम तो छुट्टी चाहती हो/ सारी जिंदगी काम किया/ कुछ और इंतजार करो/ तुम्हें छुट्टी मिलेगी/ तुम्हारी अस्थि राख आकाश में उड़ेगा/ तुम परी हो जाओगी।'

सुभाष मुखोपाध्याय (12 फरवरी 1919- 8 जुलाई 2003) का पहला काव्य संकलन 'पदातिक' 1940 में आया था और वे जनकवि के रूप में विख्यात हो गए। कवि ने तब लिखा था-'मेरी प्रियतमे, यह फूलों से अठखेलियां करने का वक्त तो एकदम नहीं है।' सुभाष ने लिखा थाः 'प्रतिदिन सुबह-सुबह सीधा सफेद सूर्य इस झील में जा डूबेगा।' 'पदातिक' संग्रह में ही सुभाष ने लिखा थाः 'टेढ़ा चाँद करोड़पति की छत पर पड़े सोफे से जा बंधा है।' 'पदातिक' संग्रह के जरिए कवि सुभाष ने बांग्ला गीति काव्यों को प्रेम गीत से अलगाया और सर्वहारा का पक्ष-समर्थन किया। बांग्ला कविता में सुभाष मुखोपाध्याय का यह बड़ा अवदान है। 1948 में आए दूसरे काव्य संकलन 'अग्निकोण' में अंधकार भेदने का स्वपन कवि ने देखा तो 'चिरकुट' संग्रह में बंगाल के अकाल की मार्मिक छवियां अंकित हुईं। 1965 में 'जत दूरे जाई' (जितनी दूर जाऊं), 1969 में 'काल मधुमास' (आया प्यार का मौसम), 1971 में 'ऐ भाई', 1972 में 'छेले गेछे बने' (बेटा जंगल में गया है), 1979 में 'एकटु पा चालिये भाई' (जरा तेज चलिए भाई), 1981 में 'जल सइते' (जल भरना, 1991 में 'धर्मेर काल' काव्य संग्रह आए और बांग्ला कविता में यथार्थ को देखने का नया दृष्टिकोण मिला। सुभाष दा की सभी कविताएं एकत्र कर सुभाष मुखोपाध्यायेर काव्य समग्र भी दो खंडों में छपा। उनकी श्रेष्ठ कविताओं का चयन भी छपा। बीसवीं शताब्दी के अंतिम वर्षों तथा इक्कीसवीं शताब्दी के आरंभ यानी में 2001 व 2002 ई. में भी सुभाष दा की कविताएं बांग्ला पत्र-पत्रिकाओं के शारदीया विशेषांकों में छपीं जिसमें सुख-दुःख, आशा-निराशा, हास्य व करुणा, वासना व वितृष्णा का संतुलन है। आज भी सुभाष दा की कविताएं बंगाल के राजनीतिक सम्मेलनों में पढ़ी जाती हैं।

सुभाष दा के समकालीन नीरेंद्रनाथ चक्रवर्ती के तीस कविता संग्रह प्रकाशित हो चुके हैं। कल्लोल युग के प्रेम, सौंदर्य और कमनीयता से मुक्ति के दौर में नीरेंद्रनाथ प्रगतिशील चेतना से जुड़े। उन्होंने इस रचनाधारा को नए धरातल पर प्रतिष्ठित किया। उन्होंने बांग्ला में सहज कविता का सूत्रपात किया। 'कलकातार जीशू', 'पागला घंटी', 'उलंग राजा' काव्य संग्रहों की रचनाभूमि यही है। प्रतिबद्ध वामपंथी होने के बावजूद उनकी सदा कोशिश रही कि वे विचारधारा की बजाय मनुष्य की दैनंदिन की समस्याओं और संवेदों से जुड़ें। उन्होंने प्रगतिशील कविता को सही मानवीय पहचान दी। कविताओं का संकलन 'सकुलेर तीन जन', कविता समग्र का चौथा खंड, बाल कविताओं का संग्रह 'गाछ पाला नदी नाला' में व्यक्ति विशेष की खुशी, उसका गम एक साथ उपस्थित है। जिन मनुष्यों को वे देखते हैं, जिनसे परिचित हैं, उनकी व्यक्तिगत पहचान और उनकी व्यक्तिगत विशेषताओं का सम्मान करते हैं और उन्हें कविता का विषय बनाते हैं।

कविता दूसरी विधाओँ से कुछ ज्यादा और नया कहने का यत्न करती है। कविता आनंद का साथ देती है, शोक के समय सांत्वना देती है और पराजय के बाद नए सिरे से उठ कर लड़ाई करने का साहस देती है। कविता हर समय में मनुष्य की संगी होती है। महान कविता वह है जो हमारे आनंद के समय उसका समर्थन करे, शोक के समय सांत्वना दे और पराजय के बाद लड़ने का साहस दे, इस कसौटी पर नीरेन दा की कविताएं खरा उतरती हैं।

एक समय परंपराभंजक की पहचान लेकर उभरे सुनील गंगोपाध्याय पिछले पांच दशकों से बांग्ला साहित्य के सुपरस्टार बने रहे। उनकी पहली कविता 'एकटि चिट्ठी' शीर्षक से 1952 में 'देश' में छपी थी। मृत्यु पर्यंत उनकी सृजन सक्रियता बनी रही। उनका नया काव्य संकलन 'बालूकनार मतन अ-सामान्य' पुस्तक मेले में आया था और बांग्ला पाठकों द्वारा हाथों-हाथ लिया गया था। 'बालूकनार मतन अ-सामान्य' काव्य संग्रह को पढ़ने के उपरांत उनकी कविता वह नहीं रह जाती जिसे हम अब तक जानते रहे हैं। इस संग्रह की कविताएं भिन्न धरातल और स्वाद की कविताएं हैं। उनकी कविता में जो चीज नहीं बदली है, वह है, प्रेम में उनकी आस्था। उनके पहले काव्य संग्रह 'एका एवं कयेकजन' से लेकर नए संग्रह 'बालूकनार मतन अ-सामान्य' तक की यात्रा पर नजर डालें तो पाएंगे कि प्रेम-धर्म के प्रति आज भी सुनील दा अविचल हैं। कवि की जितनी उम्र बढ़ी है, प्रेम के प्रति उसकी आस्था और गहन होती गई है-'उम्र जितनी कम होती है, उतने ही निकट तुम्हें पाना चाहता हूं प्रेम।' कविता में प्रेम की कोमल संवेदना का पारस संस्पर्श ही जीवन को जीनेलायक बनाता है इसीलिए सुनील दा ने बहुत पहले लिखा था-'सिर्फ कविता के लिए यह जन्म, सिर्फ कविता के लिए/ कुछ खेल, सिर्फ कविता के लिए बर्फ़ीली सांझ बेला में/ अकेले आकाश-पाताल पार कर आना, सिर्फ कविता के लिए/अपलक लावण्य की शान्ति एक झलक/ सिर्फ कविता के लिए नारी, सिर्फ/ कविता के लिए इतना रक्तपात, मेघ में गंगा का निर्झर/ सिर्फ कविता के लिए और बहुत दिन जीने की लालसा होती है/ मनुष्य का इतना क्षोभमय जीवन/ सिर्फ कविता के लिए मैंने अमरत्व को तुच्छ माना है।'

सिर्फ कविता के लिए जिसे बहुत जीने की लालसा हो, वही कवि प्रेम के लिए सब कुछ रख जाना चाहता है। 'नीरा के लिए' शीर्षक कविता में सुनील गंगोपाध्याय कहते हैं-'नीरा! तुम लो दोपहर की स्वच्छता/लो रात की दूरियाँ/तुम लो चन्दन-समीर/लो नदी किनारे की कुँआरी मिट्टी की स्निग्ध सरलता/हथेलियों पर नींबू के पत्तों की गंध/नीरा, तुम घुमाओ अपना चेहरा/तुम्हारे लिए मैंने रख रखा है/वर्ष का श्रेष्ठवणी सूर्यास्त/तुम लो राह के भिखारी-बच्चे की मुस्कराहट/लो देवदारु के पत्तों की पहली हरीतिमा/कांच-कीड़े की आंखों का विस्मय/लो एकाकी शाम का बवण्डर/जंगल के बीच भैंसों के गले की टुन-टुनलो नीरव आंसू/लो आधी रात में टूटी नीन्द का एकाकीपन/नीरा, तुम्हारे माथे पर झर जाए/कुहासा-लिपटी शेफालिका/तुम्हारे लिए सीटी बजाए रात का एक पक्षी/धरती से अगर बिला जाए सारी सुन्दरता/तब भी, ओ मेरी बच्ची/तेरे लिए/मैं यह सब रख जाना चाहता हूं।' इस कविता में सुनील दा धरती से सारी सुंदरता के बिला जाने की सूरत में भी बच्ची के लिए सब रख जाना चाहते हैं और नए संग्रह 'बालूकनार मतन अ-सामान्य' की पहली ही कविता है-'हे सुंदर।' सुनील दा दरअसल जीवन को सुंदर बनाना चाहते हैं और इसीलिए अपनी कविता में सुंदर जीवन को भरते हैं-'हे सुंदर, यह लो, मेरा सर्वस्व, एक जीवन।'

शंख घोष समकालीन बांग्ला कविता के ही नहीं, भारतीय कविता के स्वाभिमान हैं। जीवन में नाना तरह के संकटों के क्षणों में या आनंद के क्षणों में शंख घोष की कविता पाठक की व्यक्तिगत संगी हो जाती है और आश्रय देती है। उनकी कविताएं आत्मीय और सबसे मनोनुकूल लगती हैं। उनकी कविता जीवन, विश्व और ब्रह्मांड बोध को संलग्न कर देती है। उनके काव्य संग्रहों- 'दिन गुली रात गुली', 'एखन समय नय', 'निहित पाताल छाया', 'शंख घोषेर श्रेष्ठ कविता', 'आदिम लतागुल्ममय', 'मूर्ख बोड़ो सामाजिक नय', 'बाबरेर प्रार्थना', 'तुमी तो तेमन गौरी नउ', 'पांजरेर दांडेर शब्द', 'शब्द निये खेला,' 'प्रहर जोड़ा त्रिताल', 'मूख ढेके जाय विज्ञापने', 'धूम लेगेछे हृतकमले', 'लाइनेई छिलाम बाबा', 'गांधार्व कविता गुच्छ', 'सबेर उपरे शामियाना', 'छंदेर भीतरे एतो अंधकार', 'सबकिछुते खेलना हय', 'राग करो ना रागुनी', 'बंदुरा माती तरजाय', 'शंख घोषेर निर्वाचित प्रेमेर कविता', 'सेरा छड़ा' और 'आमन जाबे लाटू पाहाड़' में हम यह विशेषता देख सकते हैं। शंख दा के सभी काव्य संग्रहों को देज पब्लिशिंग ने दो खंडों में 'शंख घोषेर कविता संग्रह' शीर्षक से प्रकाशित कर दिया है। एक कविता में शंख दा कहते हैं-'विश्व का प्रभु कौन है, यह सभी जानते हैं, हम ऋणी हैं।' 'रक्त का दोष' शीर्षक कविता की इस पंक्ति में वे तीखा व्यंग्य करते हैं तो 'छंद के भीतर इतना अंधकार', 'बिंब', 'कवि से पाठिका' अथवा 'कवि से पाठक' के संवाद में कविता के सरोकार पर सारगर्भित टिप्पणी करते हैं।

बांग्ला साहित्य की सभी विधाओं को साधिकार छूनेवाली नवनीता देवसेन ने करीब सौ पुस्तकें लिखी हैं। यह कहना ज्यादा उचित होगा कि उनका बहुमुखी लेखन ही साहित्य में उनकी जगह बनाता है। नवनीता ने चालीस के दशक में ही लिखना शुरू कर दिया था। नवनीता जब स्कूल में पढ़ रही थीं तो गोखले स्कूल की मैगजीन 'साधना' में पहली बार उनकी कविताएँ छपी थीं। तब माँ की प्रेरणा से ही उनकी पहली कविता पुस्तक 'प्रथम प्रत्यय' 1959 में निकली। कविता के दर्पण में ही सबसे पहले उन्होंने अपना चेहरा देखा और कविता से ही उनके लेखन की शुरुआत हुई। कविता ही उनका प्रथम प्रत्यय है। कविता उनके रक्त में समाई है। कविता उनका अभिमान है, उनकी प्रार्थना है, उनकी नि:संगता है, उनकी पूर्णता है, उनकी तृप्ति है।

कविता की पहली किताब प्रथम प्रत्यय का आना, हार्वर्ड से एमए एम.ए. की डिग्री हासिल करना और माँ-पिता को छोड़कर विदेश जाना-यह सब एक साथ हुआ था। उसके बाद प्रसिद्ध अर्थशास्त्री अमर्त्य सेन से विवाह हुआ। माँ बनीं। पहली बार जब माँ बनीं तो बहुत ही आनंदित हुई थीं, पर वही गौरवबोध स्थायी भाव से क्या कायम रहता? दूसरी कन्या की भी मां बनीं। उस दौरान देश-विदेश घूमती रहीं। चौदह वर्ष बाद विवाह-विच्छेद हो गया। कविता लिखना कम हो गया था, क्योंकि एक जीवन टूट रहा था, तो दूसरा निर्मित हो रहा था। नवनीता अरसे तक यादवपुर विश्वविद्यालय के तुलनात्मक साहित्य की प्रोफेसर भी रहीं। मां-पिता के घर भालोबासा में रहते हुए आज भी नवनीता साहित्य की अखंड साधना में लगी हुई हैं। इसी के साथ नारीवादी आंदोलनों को गति देने के लिए अपनी संस्था सई के बैनरतले एक दशक से सक्रिय हैं।

जिस तरह नवनीता का जीवन टूटते-बिखरते बढ़ता गया, कविता उसी तरह बनती गई, बढ़ती रही। जीवन ने उनके पैर के नीचे से जितनी बार धरती खिसका दी और अंधकार के गर्त में धकेल दिया, कविता ने उतनी बार आगे आकर उनका हाथ थामा और मजबूत धरती पर खड़ा कर दिया, प्रकाश दिया, उष्णता दी। गौरतलब है कि नवनीता की कविता बाहर से सरल है, अंदर से नहीं। उनकी कविता की भाषा चित्रकला की भाषा जैसी है। इधर के तीन दशकों में उनके जीवन का प्रतिबिंब कविता में ही ज्यादा प्रकट हुआ है।

नवारुण भट्टाचार्य (23 जून 1948-31 जुलाई 2014) की कविता 'ऐई मृत्यु उपत्यका आमार देश नेई' (यह मृत्यु उपत्यका नहीं है मेरा देश) ने उन्हें सत्तर के दशक में ही राष्ट्रीय शख्सियत बना दिया। वह कविता बांग्ला पत्र-पत्रिकाओं में बार-बार छपी। दूसरी भारतीय भाषाओं में भी अनूदित होकर यह कविता छपी। ज्ञानरंजन के संपादन में निकलनेवाली हिंदी की प्रसिद्ध पत्रिका 'पहल' ने हिंदी में उसे पुस्तिका के रूप में छापा था। अनुवादक थे मंगलेश डबराल। वह कविता हिंदी में एक विस्फोट की तरह चर्चित हुई, कइयों को जुबानी याद हुई और मंगलेश डबराल के शब्दों में कहें तो संस्कृति के मोर्चे पर बेचैनी से सक्रिय लोगों के लिए काव्यात्मक घोषणा पत्र या 'थीम पोएम' बन गई थी। नवारुण अपनी कविता के विलक्षण बिंबों में कहीं जीवनानंद दास और कहीं रवींद्रनाथ ठाकुर को भी एक नया, अप्रत्याशित संदर्भ दे देते हैं। विद्रोही और क्रांतिकारी आवेग के अलावा नवारुण की कविता में कथ्य, संवेदना और फार्म की विविधता रोमांच पैदा करती है। इनमें शहरी जिंदगी की यातना और क्रूरता की अतियथार्थवादी से लगनेवाले चित्र हैं, राजसत्ता का आतंक है, जीवन को अमानवीय बनानेवाले शत्रुओं की शिनाख्त है और इन सबके खिलाफ भीषण रोष में 'भीषण युद्ध' की आकांक्षा है-'जो पिता अपने बेटे की लाश की शिनाख्त करने से डरे/ मुझे घृणा है उससे/ जो भाई अब भी निर्लज्ज और सहज है/ मुझे घृणा है उससे/ जो शिक्षक, बुद्धिजीवी, कवि, किरानी/ दिनदहाड़े हुई इस हत्या का/ प्रतिशोध नहीं चाहता/ मुझे घृणा है उससे।'

'यह मृत्यु उपत्यका नहीं है मेरा देश' लंबी कविता है। नवारुण की छोटी कविता भी चर्चा में आ जाती थी। नवंबर 2011 में नवारुण दा की एक छोटी कविता ने बांग्ला जगत में भूचाल ला दिया था। कविता का शीर्षक था- 'गौरैया'। यह कविता माओवादी नेता एम. कोटेश्वर राव उर्फ किशन जी की मौत पर काव्यात्मक प्रतिक्रिया है। कहने की जरूरत नहीं कि किसी तात्कालिक घटना पर कविता लिखना बहुत चुनौतीपूर्ण होता है पर इस चुनौती का सामना नवारुण ने पूरी रचनात्मकता के साथ किया था। किशन जी की मौत 24 नवंबर 2011 को हुई और 25 नवंबर 2011 को नवारुण ने यह कविता लिखी थी जो उसके अगले दिन कोलकाता से प्रकाशित बांग्ला दैनिक 'प्रतिदिन' में छपी थी। पूरी कविता इस प्रकार है-शराब नहीं पीने पर भी/ स्ट्रोक नहीं होने पर भी/ मेरा पैर लड़खड़ाता है/ भूकंप आ जाता है मेरी छाती और सिर में। मोबाइल टावर चीखता है/ गौरैया मरी पड़ी रहती हैं/ उनका आकाश लुप्त हो गया है/ तस्करों ने चुरा लिया है आकाश। पड़ी रहती है नितांत अकेली/ गौरैया/ उसके पंख पर जंगली निशान/ चोट से नीले पड़े हैं होंठ व नेत्र/ पास में बिखरे पड़े हैं खर पतवार, एके फोर्टिसेवेन/ इसी तरह खत्म हुआ इस बार का लेन-देन। जरा चुप करेंगे विशिष्ट गिद्धजन/ रोकेंगे अपनी कर्कश आवाज/ कुछ देर, बिना श्रवण यंत्र के, गौरैया की किचिरमिचिर/ सुनी जाए। ध्यान देने योग्य है कि इस कविता में कवि पहले आम गौरैयों की बात करता है और उसके ठीक बाद एक खास गौरैया (किशन जी) की। इस कविता में विशिष्ट गिद्धजन बंगाल के उन बुद्धिजीवियों को कहा गया है जो सत्ता से लाभ पाने के लिए सदा-सर्वदा गिद्ध की तरह झपट्टा मारने को व्याकुल रहते हैं।

अस्सी के बाद बांग्ला में जो कवि तेजी से उभरे, उनमें जय गोस्वामी प्रमुख स्थान रखते हैं। जीवन-जगत में जो कुछ भी है-क्रोध, राग, द्वेष, प्रतिवाद, धिक्कार, खुशी, व्यंग्य, विद्रुप, आंतरिकता, सौंदर्य, जीवन की कोमलता, हिंसा वह सब जय की कविताओं में है। उनकी कविताओं में प्रकृति, जल, अरण्य, मरुभूमि सब मिलेंगे। जय की कविताओं में विषय वैविध्य भी है और नई काव्य-भाषा भी। तात्कालिक घटनाओं पर मार्मिक काव्यात्मक प्रतिक्रियाएं जय गोस्वामी के यहां भी हैं। नंदीग्राम नरसंहार के बाद जय ने 'शासक के प्रति' शीर्षक कविता लिखी थी-बंगाल के तन-बदन से झर रहा है खून/ झर रहा है खून, तन-बदन से! कोई दौड़कर पहुँचा है, नहर के उस पार/ छाती फाड़कर पुकारा किसी माँ ने--रवि रे...जवाब की जगह, पलटकर गूँज उठा, कौन रवि? कौन पुष्पेन्दु? या भरत? ढूंढ़ने पर, कौन मिला? कौन नहीं मिला? किसको देखा गया आख़िरी बार, धक्का-मुक्की में, जनता के जमघट में रवि तो चालान हो गया, लाश बनकर/ और-और लाशों की भीड़ में !

जय गोस्वामी राजसत्ता के आतंक पर इस तरह काव्यात्मक प्रतिक्रिया देते हैं-उतरी है अपूर्व शाम! समूचे मैदान में, नरम-गुनगुनी उतरी है धूप! धूप, आम के पेड़ की दरारों से/ उतरी है दरवाज़े तक! उस शोकाहत घर के ऊपर/ आकर बैठा है, सिर्फ़ एक कौआ ! उसमें भी, काँव-काँव की, नहीं है हिम्मत/ काफ़ी देर-देर तक रोने के बाद/ कोई पुत्र-हारा औरत, अभी-अभी/ थककर सोई है! कहीं उसकी नींद न टूट जाए! जय एक कविता में कहते हैं-मेरी अहमियत थी बादलों में/ प्राणमय, चिन्हमय जनपद में! मेरी अहमियत थी/ जी भर-भरकर नई-नई फसलों में/ सड़क के दोनों ओर निहारते हुए, अछोर खेत-मैदानों में/ मेरी अहमियत थी../ आज/ मेरी अहमियत है, सिर्फ़ ख़ून में नहाते हुए/ बलि-काठ में! बंगाल के तत्कालीन मुख्यमंत्री बुद्धदेव भट्टाचार्य ने जब नंदीग्राम में सूर्योदय की बात की तो जय ने लिखा-काफ़ी-कुछ के बीच/ उगता है सूरज! बन्द स्कूलों की दीवारों पर, शिखर पर/ पड़ती है धूप! पड़ती है धूप, माटी खोदते हुए/ कुदाल और बेलचों पर! पड़ती है धूप, लापता बच्चों की/ ख़ून में सनी, स्कूली पोशाकों पर। जय की कविता यहीं नहीं रुकती। उनकी कवि दृष्टि कभी तमलुक अस्पताल में छाती में बड़ा छेद लिए चित्त लेटे सुकुमार गिरि को देखती है तो कभी कटी गर्दन-फटा पेट-छिदी छाती-फूटा सिर लिए लाश के ऊपर लाश को देखती है। जय गोस्वामी बाउल पर कविता लिखते हैं तो पोखरण पर भी। सिंगुर पर तो उन्होंने कविता-श्रृंखला ही लिख डाली। सुनील गंगोपाध्याय के निधन पर 'देश' में अत्यंत मार्मिक कविता जय ने लिखी। जय गोस्वामी की अब तक 'आलोया हृद', 'भुतुम भगवान', 'घुमिएछे झाऊपाता', 'आज जदि आमाय जिज्ञेस कोरो', 'गोल्ला', 'पागली तोमार सोंगे', 'वज्रविद्युत भर्तीखाता', 'ओह स्वप्न', 'पातार पोशाक', 'विषाद', 'माँ विषाद', 'तोमाके आश्चर्यमयी', 'सूर्यपोड़ा छाई', 'जगतबाड़ी' समेत डेढ़ दर्जन कविता पुस्तकें प्रकाशित हैं। 'सकालबेलार कवि', 'मृत नगरीर राजा', 'भालोटि बासबो', 'फुलगाछे कि धुलो' और 'आत्मीय स्वजन' जैसी रचनाएं बांग्ला को दी हैं।


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